Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन

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जैसे सुंदर भाव के समावेश से कविता में जान पड़ जाती है और सुंदर रंगों से चित्र में, उसी प्रकार दोनों बहनों के आने से झोंपड़ी में जान आ गई। अंधी आंखों में पुतलियां पड़ गई हैं।

मुर्झाई हुई कली शान्ता अब खिलकर अनुपम शोभा दिखा रही है। सूखी हुई नदी उमड़ पड़ी है। जैसे जेठ-बैसाख की तपन की मारी हुई गाय सावन में निखर जाती है और खेतों में किलोलें करने लगती है, उसी प्रकार विरह की सताई हुई रमणी अब निखर गई है, प्रेम में मग्न है।

नित्यप्रति प्रातःकाल इस झोंपड़े से दो तारे निकलते हैं और जाकर, गंगा में डूब जाते हैं। उनमें से एक बहुत दिव्य और द्रुतगामी है, दूसरा मध्यम और मंद। एक नदी में थिरकता है, दूसरा अपने वृत्त से बाह नहीं निकलता। प्रभात की सुनहरी किरणों में इन तारों का प्रकाश मंद नहीं होता, वे और भी जगमगा उठते हैं।

शान्ता गाती है, सुमन खाना पकाती है। शान्ता केशों को संवारती है, सुमन कपड़े सीती है। शान्ता भूखे मनुष्य के समान भोजन के थाल पर टूट पड़ती है, सुमन किसी रोगी के सदृश सोचती है कि मैं अच्छी हूंगी या नहीं।

सदन के स्वभाव में अब कायापलट हो गया है। वह प्रेम का आनंदभोग करने में तन्मय हो रहा है। वह अब दिन चढ़े उठता है, घंटों नहाता है, बाल संवारता है, कपड़े बदलता, सुगंध मलता है, नौ बजे से पहले अपनी बैठक में नहीं आता और आता भी है तो जमकर बैठता नहीं, उसका मन कहीं और रहता है। एक-एक पल में भीतर जाता है और अगर बाहर से बात करने में देर हो जाती है, तो उकताने लगता है। शान्ता ने उस पर वशीकरण मंत्र डाल दिया है।

सुमन घर का सारा काम भी करती है और बाहर का भी। वह घड़ी रात रहे उठती और स्नान-पूजा के बाद सदन के लिए जलपान बनाती है। फिर नदी के किनारे आकर नाव खुलवाती है। नौ बजे भोजन बनाने बैठ जाती है। ग्यारह बजे तक यहां से छुट्टी पाकर वह कोई-न-कोई काम करने लगती है। नौ बजे रात को जब लोग सोने चले जाते हैं, तो वह पढ़ने बैठ जाती है। तुलसी की विनय-पत्रिका और रामायण से उसे बहुत प्रेम है। कभी भक्तमाल पढ़ती है, कभी विवेकानंद के व्याख्यान और कभी रामतीर्थ के लेख। वह विदुषी स्त्रियों के जीवन-चरित्रों को बड़े चाव से पढ़ती है। मीरा पर उसे असीम श्रद्धा है। वह बहुधा ग्रंथ ही पढ़ती है। लेकिन ज्ञान की अपेक्षा भक्ति में उसे शांति मिलती है।

मल्लाहों की स्त्रियों में उसका बड़ा आदर है। वह उनके झगड़े चुकाती है। किसी के बच्चे के लिए कुर्त्ता-टोपी सीती है, किसी के लिए अंजन या घुट्टी बनाती है। उनमें कोई बीमार पड़ता है, तो उसके घर जाती है और दवा-दारू की फिक्र करती है। वह अपनी गिरी दीवार को उठा रही है। उस बस्ती के सभी नर-नारी उसकी प्रशंसा करते हैं और उसका यश गाते हैं, हां, अगर आदर नहीं है, तो अपने घर में। सुमन इस तरह जी तोड़कर घर का सारा बोझ संभाले हुए है, लेकिन सदन के मुंह से कृतज्ञता का एक शब्द भी नहीं निकलता। शान्ता भी उसके इस परिश्रम का कुछ मूल्य नहीं समझती। दोनों-के-दोनों उनकी ओर से निश्चिंत हैं, मानो वह घर की लौंडी है और चक्की में जुते रहना ही उसका धर्म है। कभी-कभी उसके सिर में दर्द होने लगता है, कभी-कभी दौड़-धूप से बुखार चढ़ जाता है, तब भी वह घर का सारा काम रीत्यानुसार करती रहती है। वह भी कभी-कभी एकांत में अपनी इस दीन दशा पर घंटों रोती रहती है, पर कोई ढाढस देने वाला, कोई आंसू पोंछने वाला नहीं?

सुमन स्वभाव से भी मानिनी, सगर्वा स्त्री थी। वह जहां कहीं रही थी, रानी बनकर रही थी। अपने पति के घर वह सब कष्ट झेलकर भी रानी थी। विलासनगर में वह जब तक रही, उसी का सिक्का चलता रहा। आश्रम में वह सेवा-धर्म पालन करके सर्वमान्य बनी हुई थी। इसलिए अब यहां इस हीनावस्था में रहना उसे असह्य था। अगर सदन कभी-कभी उसकी प्रशंसा कर दिया करता, कभी उससे सलाह लिया करता, उसे अपने घर की स्वामिनी समझा करता या शान्ता उसके पास बैठकर उसकी हां में हां मिलाती, उसका मन बहलाती, तो सुमन इससे भी अधिक परिश्रम करती और प्रसन्नचित्त रहती। लेकिन उन दोनों प्रेमियों को अपनी तरंग में और कुछ न सूझता था। निशाना मारते समय दृष्टि केवल एक ही वस्तु पर रहती है। प्रेमासक्त मनुष्य का भी यही होता है।

लेकिन शान्ता और सदन की यह उदासीनता प्रेम-लिप्सा के ही कारण थी, इसमें संदेह है। सदन इस प्रकार सुमन से बचता था, जैसे हम कुष्ठ-रोगी से बचते हैं, उस पर दया करते हुए भी उसके समीप जाने की हिम्मत नहीं रखते। शान्ता उस पर अविश्वास करती थी, उसके रूप-लावण्य से डरती थी। कुशल यही था कि सदन स्वयं सुमन से आंखें चुराता था, नहीं तो शान्ता इससे जल ही जाती। अतएव दोनों चाहते थे कि यह आस्तीन का सांप दूर हो जाए, लेकिन संकोचवश वह आपस में भी इस विषय को छेड़ने से डरते थे।

सुमन पर यह रहस्य शनैः शनैः खुलता जाता था।

एक बार जीतन कहार शर्माजी के यहां से सदन के लिए कुछ सौगात लाया था। इसके पहले भी वह कई बार आया था, लेकिन उसे देखते ही सुमन छिप जाया करती थी। अब की जीतन की निगाह उस पर पड़ गई। फिर क्या था, उसके पेट में चूहे दौड़ने लगे। वह पत्थर खाकर पचा सकता था, पर कोई बात पचाने की शक्ति उसमें न थी। मल्लाहों के चौधरी के पास चिलम पीने के बहाने गया और सारी रामकहानी सुना आया। अरे यह तो कस्बीन है, खसम ने घर से निकाल दिया, तो हमारे यहां खाना पकाने लगी, वहां से निकाली गई तो चौक में हरजाईपन करने लगी, अब देखता हूं तो यहां विराजमान है। चौधरी सन्नाटे में आ गया, मल्लाहिनों में भी इशारेबाजियां होने लगीं। उस दिन से कोई मल्लाह सदन के घर का पानी न पीता, उनकी स्त्रियों ने सुमन के पास आना-जाना छोड़ दिया। इसी तरह एक बार लाला भगतराम ईंटों की लदाई का हिसाब करने आए। प्यास मालूम हुई तो मल्लाह से पानी लाने को कहा। मल्लाह कुएं से पानी लाया। सदन के घर में बैठे हुए बाहर से पानी मंगाकर पीना सदन की छाती में छुरी मारने से कम न था।

अंत में दूसरा साल जाते-जाते यहां तक नौबत पहुंची कि सदन जरा-जरा-सी बात पर सुमन से झुंझला जाता और चाहे कोई लागू बात न कह, पर उसके मन के भाव झलक ही पड़ते थे।

सुमन को मालूम हो रहा था कि अब मेरा निर्वाह यहां न होगा। उसने समझा था कि यहां बहन-बहनोई के साथ जीवन समाप्त हो जाएगा। उनकी सेवा करूंगी, टुकड़ा खाऊंगी और एक कोने में पड़ी रहूंगी। इसके अतिरिक्त जीवन में अब उसे कोई लालसा नहीं थी, लेकिन हा शोक यह तख्ता भी उसके पैरों के नीचे से सरक गया और अब वह निर्दयी लहरों की गोद में थी।

लेकिन सुमन को अपनी परिस्थिति पर दुख चाहे कितना ही हुआ हो, उसे सदन या शान्ता से कोई शिकायत न थी। कुछ तो धार्मिक प्रेम और कुछ अपनी अवस्था के वास्तविक ज्ञान ने उसे अत्यंत नम्र, विनीत बना दिया था। वह बहुत सोचती थी कि वहां जाऊं, जहां अपनी जान-पहचान का कोई आदमी न हो, लेकिन उसे ऐसा कोई ठिकाना न दिखाई देता। अभी तक उसकी निर्बल आत्मा कोई अवलंब चाहती थी। बिना किसी सहारे संसार में रहने का विचार करके उसका कलेजा कांपने लगता था। वह अकेली असहाय, संसार-संग्राम में आने का साहस न कर सकती थी। जिस संग्राम में बड़े-बड़े, कुशल, धर्मशील, दृढ़ संकल्प मनुष्य मुंहकी खाते हैं, वहां मेरी क्या गति होगी। कौन मेरी रक्षा करेगा। कौन मुझे संभालेगा। निरादर होने पर भी यह शंका उसे यहां से निकलने न देती थी।

एक दिन सदन दस बजे कहीं से घूमकर आया और बोला– भोजन में अभी कितनी देर है, जल्दी करो मुझे पंडित उमानाथ से मिलने जाना है, चचा के यहां आए हुए हैं।

शान्ता ने पूछा– वह वहां कैसे आए?

सदन– अब यह मुझे क्या मालूम? अभी जीतन आकर कह गया कि वह आए हुए हैं और आज ही चले जाएंगे। यहां आना चाहते थे, लेकिन (सुमन की ओर इशारा करके) किसी कारण से नहीं आए।

शान्ता– तो जरा बैठ जाओ, यहां अभी एक घंटे की देर है।

सुमन ने झुंझलाकर कहा– देर क्या है, सब कुछ तो तैयार है। आसन बिछा दो, पानी रख दो, मैं थाली परोसती हूं।

शान्ता– अरे, तो जरा ठहर जाएंगे तो क्या होगा? कोई डाकगाड़ी छूटी जाती है? कच्चा-पका खाने का क्या काम?

सदन– मेरी समझ में नहीं आता कि दिन-भर क्या होता रहता है? जरा-सा भोजन बनाने में इतनी देर हो जाती है।

सदन जब भोजन करके चला गया, तब सुमन ने शान्ता से पूछा– क्यों शान्ता, सच बता, तुझे मेरा यहां रहना अच्छा नहीं लगता? तेरे मन में जो कुछ है, वह मैं जानती हूं, लेकिन तू जब तक अपने मुंह से मुझे दुत्कार न देगी, मैं जाने का नाम न लूंगी। मेरे लिए कहीं ठिकाना नहीं है।

शान्ता– बहन, कैसी बात कहती हो। तुम रहती हो तो घर संभला हुआ है, नहीं तो मेरे किए क्या होता?

सुमन– यह मुंह देखी बात मत करो, मैं ऐसी नादान नहीं हूं। मैं तुम दोनों को अपनी ओर से कुछ खिंचा हुआ पाती हूं।

शान्ता– तुम्हारी आंखों की क्या बात है, वह तो मन की बात देख लेती हैं।

सुमन– आंखें सीधी करके बोलो, जो मैं बोलती हूं, झूठ है?

शान्ता– जब तुम जानती हो, तो पूछती क्यों हो?

सुमन– इसलिए कि सब कुछ देखकर भी आंखों पर विश्वास नहीं आता। संसार मुझे कितना ही नीच समझे, मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है। वह मेरे मन का हाल नहीं जानता, लेकिन तुम तो सब कुछ देखते हुए भी मुझे नीच समझती हो, इसका आश्चर्य है। मैं तुम्हारे साथ लगभग दो वर्ष से हूं, इतने दिनों में तुम्हें मेरे चरित्र का परिचय अच्छी तरह हो गया होगा।

शान्ता– नहीं बहन, मैं परमात्मा से कहती हूं, यह बात नहीं है। हमारे ऊपर इतना बड़ा कलंक मत लगाओ। तुमने मेरे साथ जो उपकार किए हैं वह मैं कभी न भूलूंगी।

लेकिन बात यह है कि उनकी बदनामी हो रही है। लोग मनमानी बातें उड़ाया करते हैं। वह (सदनसिंह) कहते थे कि सुभद्राजी यहां आने को तैयार थीं, लेकिन तुम्हारे रहने की बात सुनकर नहीं आईं और बहन, बुरा न मानना, जब संसार में यही प्रथा चल रही है, तो हम लोग क्या कर सकते हैं?

सुमन ने विवाद न किया। उसे आज्ञा मिल गई। अब केवल एक रुकावट थी। शान्ता थोड़े ही दिनों में बच्चे की मां बनने वाली थी। सुमन ने अपने मन को समझाया; इस समय छोड़कर जाऊंगी तो इसे कष्ट होगा। कुछ दिन और सह लूं। जहां इतने दिन काटे हैं, महीने-दो महीने और सही। मेरे ही कारण यह इस विपत्ति में फंसे हुए हैं। ऐसी अवस्था में इन्हें छोड़कर जाना मेरा धर्म नहीं है।

सुमन का यहां एक-एक दिन एक-एक साल की तरह कटता था, लेकिन सब्र किए पड़ी हुई थी।

पंखहीन पक्षी पिंजरबद्ध रहने में अपनी कुशल समझता है।

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